जन्म लेने के ठीक बाद और आगे के कुछ सालों तक भी हम जितने बेमकसद और बिंदास
होते हैं, अगर जीवन वैसा ही बीत जाए तो कैसा हो!
दूसरी कल्पना यह है सुजीत कुमार के गाँव में मुन्नीलाल की चाय वाली गुमटी के
किनारे पड़े खंभे का प्रयोग सोते हुए अपने-अपने आसमानों को निहारने के लिए किया
जाए तो कैसा हो!
हर उम्र, हर दुनिया के लोगों का अपना आसमान। जहाँ कहानी की मनचाही शुरुआत और
कहानी का मनचाहा अंत हो सकता है।
कुछ ऐसा और बहुत कुछ न जाने कैसा-कैसा सुजीत कुमार सोचते थे। लेकिन, खुद वे
बेमकसद नहीं थे। मकसदों से उपजी जीवन की घटनाओं ने उत्तरोत्तर उन्हें कम हँसने
या न के बराबर हँसने पर मजबूर कर दिया था। जहाँ वे पहले मुस्कुराते भी थे और
अब तो गाल को दाएँ-बाएँ शिफ्ट करके काम चला लेते थे। जैसे और जितने लोग, लगभग
वैसी ही भाव-भंगिमा। वह दिन रात पढ़ते रहते, तमाम तरह की किताबें जीएस,
इंटरनेशनल रिलेशंस, बॉयोटेक्नीक, एग्रीकल्चर और कभी-कभार ज्योतिषी वगैरह भी।
कुल मिलाकर थकी हुई, बोरिंग और निराश कर देने वाली थी सुजीत कुमार की जिंदगी।
रोज बिना आँख मीचे वे कमरे का दरवाजा खोलते और अखबार उठाकर पंडित प्रेम शर्मा
का कॉलम सबसे पहले बाँच डालते। भविष्य का भूत एक साधारण आदमी जितना ही उन पर
भी हावी था। सुजीत कुमार अपनी पूरी जिंदगी में कभी भी को-एड में नहीं पढ़े थे।
लड़कियाँ बगल में बैठतीं तो सुजीत कुमार का मन पढ़ाई में बिलकुल भी नहीं लगता।
यह उनके जीवन का नया और परमानेंट मकसद था, हटिया एक्सप्रेस के डिपार्चर से
पहले तक तो था ही। उन दिनों सुजीत कुमार अव्वल दर्जे के इमोशनल आदमी हुआ करते
थे। और इसी एक वजह न जाने कितने महीनों तक माँ को सुजीत के फोन का इंतजार
करवाया था। लेकिन, जब-जब नए शहर और कालेज के साथ कदमताल नहीं कर पाते तो
स्टेशन के बाहरी हिस्से पर टँगे फोन बॉक्स पर पचास-साठ सिक्के लेकर जाते। ये
सिक्के वे उन दिनों जुटाते जिन दिनों उनका कान्फिडेंस कम से कमतर होता जाता और
उन्हें लगता कि माँ से बतियाने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है। माँ बोलकर
वे भरभरा जाते और दूसरी तरफ माँ आँचल मुँह में ठूँसकर सुबकने लगती। स्टेशन के
उस हिस्से में कोई आता-जाता नहीं था तो सुजीत कुमार दीवार की टेक लेकर खड़े हो
जाते और सिसकते रहते। माँ पूछती, कैसे हो बेटा? तो बोलते, सब ठीक है माँ।
रिसीवर दूर रखकर एक सिसकी भर लेते।
माँ पूछती - पढ़ाई, तो कहते बिलकुल ठीक और रिसीवर फिर दूरकर रोने लगते।
माँ पूछती - खाना खाते हो न टाइम पर तो थूक गटककर कहते हाँ, रिसीवर उतनी ही
दूरी पर रहता था। जैसे ही उनको लगता कि माँ उनके रोने को भाँपना चाह रही है,
वैसे ही हैलो-हैलो कहने लगते। खर्र-खर्र, हुड-हुक की आवाज भी मुँह से निकाल
लेते। सत्तर फीसदी ऐसा होता कि वे माँ को कहते कि फोन में खराबी है और माँ मान
लेती। इस झूठी किंतु सच की तुलना में सुखी अंडरस्टैंडिंग के पीछे मनोविज्ञान
में शायद कोई तर्क न हो। वैसे, आजकल सब विज्ञान और तर्कों पर आधारित होता है।
मसलन, महिलाएँ एक दिन में तेरह बार खाने के बारे में सोचती है और पुरुष सत्रह
बार सेक्स करने के बारे में। शायद उस महिला के बारे में यह शोध नहीं लागू होता
जो घुटना भर पानी में बैठकर धान लगाती है और दिन कलेवा के समय को शाम के
चूल्हे का सोचती है। और उस पुरुष के बारे में भी नहीं जो दिन भर रंदा चलाता है
और रात में पव्वा पीकर बीवी के बगल में सो जाता है, नामर्द की तरह।
खैर, सुजीत कुमार अक्सर रोते और रोते-रोते सिक्के खत्म हो जाते।
सुजीत कुमार और दुनिया में एक महीन फर्क था, दुनिया हँसने के लिए सिक्के
इकट्ठा करती और सुजीत कुमार रोने के लिए। छोटा शहर था और छोटा सा रेलवे
स्टेशन। लेकिन कुछ मेल-एक्सप्रेस ट्रेनें दिन में गुजरती थी और दो डिब्बों
वाली रेल बस भी। जब सुजीत नए-नए पढने के लिए आए तो इस नए शहर के बिंदासपने के
बारे में उन्हें कोई खास अंदाजा नहीं था।
उनकी रैगिंग हुई और उन्हें बड़े पैमाने पर परेशान किया गया। ठीक उसी समय कॉलेज
में आना हुआ था हटिया एक्सप्रेस का।
स्पीड एकदम पल्सर 220 सीसी वाली। सुजीत ने उसे तब देखा जब वह कालेज के एक
सीनियर की ले तेरी की दे तेरी की कर रही थी।
सीनियर ने कहा - कहाँ से आई हो?
उसने कहा - हटिया से।
सीनियर ने कहा - हटिया एक्सप्रेस...
और हँसने लगा। सीनियर के साथ उसके और भी चेले-चपाड़े हँसने लगे।
हटिया एक्सप्रेस ने सीनियर को तेरह झापड़ मारे, लेकिन सुजीत कुमार के हिसाब से
सही जगह पर लगे केवल तीन थे।
हटिया एक्सप्रेस से सबको डर लगता था लेकिन, सुजीत कुमार को नहीं। वह बस एक बात
करना चाहते थे। तीन शब्द... सिर्फ तीन शब्द जो उनका जीवन बदल सकते थे।
16 फरवरी साल 2004 की बात है, अर्थशास्त्र की कक्षा से बाहर सुजीत कुमार बैठे
अपने नोट्स पर नजर दौड़ा रहे थे। एकाएक उनको खयाल आया, कि क्यों न क्लासरूम में
चलकर पंखे की हवा खाई जाए। सुजीत कुमार क्लासरूम में पहुँचे तो उनके चेहरे की
हवा उड़ गई।
हटिया एक्सप्रेस अपने हाथ में रजिस्टर लिए अटेंडेंस वाला कॉलम भर रही थी।
सुजीत कुमार को देखने के बाद वह चौंकी नहीं, उसने धीरे से रजिस्टर को टेबल पर
रख दिया।
सुजीत कुमार के पास आकर बोली - औड़िहार चलोगे?
सुजीत कुमार ने कहा - क्यों, वहाँ क्या है?
हालाँकि वह कहते हुए हिल रहे थे और उनके चेहरे पर पसीने की कुछ बूँदें आ गई
थी।
हटिया एक्सप्रेस - वहाँ गंगा नदी हैं, मंगला माई का मंदिर है और दो डिब्बों
वाली रेल बस है।
सुजीत कुमार - हाँ चलो।
हटिया एक्सप्रेस - बस, ऐसे ही घूमकर आएँगे।
सुजीत कुमार ने हालाँकि सोच बहुत कुछ लिया था।
इसके बाद सुजीत कुमार और हटिया एक्सप्रेस न जाने कितनी बार दो डिब्बों की रेल
बस में बैठकर औड़िहार जाते। उस रेल बस में कोई टीटी नहीं आता था, सिर्फ लोग ही
लोग भरे होते थे। औड़िहार उतरकर रिक्शा पकड़ते और गंगा नदी के किनारे चले जाते।
बैठे रहते और बतियाते रहते।
जैसे - नदी का पानी इतना कम सफेद क्यों है!
हमारे प्यार का रंग क्या है!
हमारा प्यार गहरे लाल रंग का होगा!
एक जैसे सपने देखने वाले प्रेमी अमर हो जाते है, लैला मजनू की तरह।
तुमने कल मेरे लिए कौन सा सपना देखा!
सुजीत कुमार के कुछ बोलने से पहले ही हटिया एक्सप्रेस उनके होंठों पर अपने
होंठ पेस्ट कर देती। फेविकोल की मजबूत जोड़ की तरह।
हर बार सुजीत कुमार एक ऐसे विजेता जैसा फील करते जो आधा मैदान जीत लेता और इस
वजह से उनको भरोसा हो जाता कि पूरा तो कभी भी जीत सकते हैं।
सुजीत कुमार इतनी खुशी की एकमुश्त रकम पाकर बहुत ही हलका और सधा हुआ महसूस कर
रहे थे। जिंदगी अच्छी और अचरज भरी लग रही थी। उन्हें लग रहा था कि हटिया
एक्सप्रेस उनकी जिंदगी के खालीपन को भर रही है।
उन्हीं दिनों में से एक दिन हटिया एक्सप्रेस ने गंगा जी के किनारे बैठे-बैठे
पूछा कि कहाँ से आए हो पढ़ने?
सुजीत कुमार - कुँवरपुर, लखनऊ से।
हटिया एक्सप्रेस - मैं हटिया से।
सुजीत कुमार - इस कॉलेज में क्यों, वहाँ तो और भी अच्छे कालेज थे।
हटिया एक्सप्रेस - तुमसे मिलना था न बस इसलिए।
सुजीत कुमार के दिल पर डेढ़ कुंटल का साँप लोट गया, खैर दिल चकनाचूर नहीं हुआ।
इसके बाद के दिनों में सुजीत कुमार और हटिया एक्सप्रेस अक्सर रेल-बस पकड़कर
बिना टिकट के औड़िहार जाते रहे।
रेल बस का अनोखा सफर उनके प्रेम को परवान चढ़ाता रहा। दोनों कोना पकड़कर बैठे
रहते, गाड़ी में साइकिल चढ़ती, लोग चढ़ते, लोगों के सामान चढ़ते और लोगों की
जिंदगियाँ चढ़ती, रेल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी जिंदगी उस दो डिब्बे
वाली रेल बस के कोने में बस गई थी। इसी यात्रा के दौरान प्रेम की भावना में
उत्प्रेरक का काम करने वाली तमाम प्रक्रियाएँ मसलन किस, स्मूच, फोरप्ले और
सेक्स सब सुजीत कुमार की जिंदगी में ऐसे ही आए जैसे हटिया एक्सप्रेस आई थी,
बिना किसी सूचना के, बिना किसी पूर्वानमुान के। सुजीत कुमार को उस समय पहली
बार लगा कि पुरखों और बुजुर्गों ने कुछ तो अनुभव करने के बाद ही कहावतें बनाई
हैं। जैसे ऊपर वाले के घर में देर हैं अँधेर नहीं। देता तो वह सबको छप्पर फाड़
के है आदि आदि। हर आम आदमी की तरह सुजीत कुमार भी यह भूल गए थे कि ऊपर वाला
लेता भी छप्पर फाड़ के ही है। और पहली बार यह तमाम कहावतें बनाने वाले ने उसी
के डर से एक भी कहावत उसके एंटी नहीं बनाई। सब शिक्षाप्रद या फिर उसकी
चाटुकारिता करने के लिए बना दी।
ऊपर वाले ने पता नहीं कितना एफर्ट लिया लेकिन, सुजीत कुमार की लगनी शुरू हो
गई। हटिया एक्सप्रेस कई दिनों तक कॉलेज नहीं आई। सुजीत कुमार बावले हो गए।
सूखे गले और फटे होंठों से उसका नाम पुकारते। आवाज कंठ से बाहर नहीं निकलती और
हिचक के अंदर ही रह जाती - हइया एयपेस।
निराश हो गए थे सुजीत कुमार और बेसुध होकर कमरे में पड़े रहने लगे थे। चूँकि,
सुजीत कुमार लोगों से मिलते-जुलते कम थे इस वजह से उनका कोई हाल-चाल भी पूछने
नहीं आता था। घर से दूर रहने का यह उनका पहला अनुभव था। हटिया एक्सप्रेस ने
उनको माँ को भी भूलने पर मजबूर कर दिया था। दुःस्वप्न आने बंद हो गए थे। कुछ
भी सोचना बंद कर दिया था उन्होंने, सिर्फ और सिर्फ हटिया एक्सप्रेस। अब जब
हटिया एक्सप्रेस ने बेवक्त उनके जीवन से डिपार्चर कर लिया था तो उनको नहीं
सूझा कि क्या किया जाना चाहिए! वे अब बिना हटिया एक्सप्रेस के ही औड़िहार जाते
थे, वहाँ बैठते थे और उसको याद करके रोते थे। ठीक इन्हीं दिनों सुजीत कुमार की
जिंदगी में हिंदी फिल्मों और कहानियों ने प्रवेश किया। वे कलाकार बनने लगे।
सुबह रोते और शाम को पढ़ते। खूब पढ़ते, घूम-घूमकर पढ़ते और कूद-कूदकर पढ़ते। उनके
अंदर के इनसान ने पूरी तरह पलटी मार ली थी। वह इतना पढ़ने के बाद भी परीक्षा
में फेल हो गए। औड़िहार जाना जारी रहा, बदला सिर्फ इतना कि वे फिर से माँ को
फोन करने लगे।
वे दिन भर औड़िहार में रहते और शाम को माँ को फोन करते।
सुजीत कुमार माँ से बात करने के लिए अक्सर शाम का वक्त तय करते थे ताकि, खुलकर
एकांत में रो सकें। जिस शाम सुजीत कुमार खुलकर रो लेते और सिक्के समाप्त होने
के बाद वे प्लेटफार्म के आगे वाले हिस्से में जाकर एक बेंच पर बैठ जाते। आँखों
को हथेलियों से ढके हुए वे हुक-हुक करते और तब शांत होते जब स्टेशन की घंटी से
पता चलता कि अगली ट्रेन आने वाली है। हालाँकि, ट्रेन के गुजरने से पहले सुजीत
कुमार प्लेटफार्म छोड़ चुके होते और हनुमान जी के मंदिर पहुँच जाते। यह बात
नहीं थी कि वे भगवान या देवी-देवता में बहुत भरोसा करते थे। वे इतने कमजोर दिल
के आदमी थे कि उन्हें लगता कि कहीं न कहीं से तो उनकी समस्या का अंत यहाँ हो
सकता है। हनुमान मंदिर से सुलभ विकल्प उनके पास नहीं था। बेहतर विकल्प ढूँढ़ना
आदमी की नियति है, चूँकि सुजीत कुमार एक आदमी थे इस वहज से उन्होंने हनुमान
मंदिर का विकल्प चुना था। वे हनुमान मंदिर के अंदर नहीं जाते, न प्रसाद चढ़ाते
और न ही दंडवत होते। लेकिन लोगों के हँसते-रोते चेहरे देखकर उन्हें लगने लगा
था कि यहाँ समाधान होता है। हनुमान मंदिर पहुँचकर वे सीधे कुएँ पर जाते। दस
बाल्टी पानी काढ़कर मल-मलकर नहाते। जब कुएँ पर कोई नहीं होता तो एकाध हिचकी ले
लेते और जैसे ही कोई आता साँस बाँध लेते। जब-जब वे माँ को फोन करते, तब-तब वे
मंदिर में नहाने जाते थे। नहाकर वे अपने हॉस्टल आते और जमकर प्राणायाम करते।
साँस लेते खूब गहरी साँस, लंबी साँस, ऐसा लगता कि अब रुकी कि तब रुकी। इन
साँसों की लंबाई को खींचते हुए वे अक्सर सोचते कि देखें साँस कितनी देर तक साथ
देती है। उन दिनों जिंदगी से बेतरह उब चुके सुजीत कुमार साँसों को रोककर अपनी
हत्या करने वाले दुनिया के पहले आदमी बन चुके होते अगर माँ नहीं होती।
माँ का खयाल आते ही रुकी हुई साँसों को बीच में छोड़ सुजीत कुमार दुनिया के
बीचोंबीच आ खडे़ होते।
ठीक उस समय उनको लगता कि ग्रीनलाइट सिग्नल पर गाड़ियाँ तेजी से भाग रही हैं और
उनका दुर्भाग्य इतना प्रबल है कि हर गाड़ी वाला उनसे बचकर दुआ-सलाम करता हुआ
निकल रहा है।
प्राणायाम के बाद सुजीत कुमार अपने कमरे का दरवाजा खोलकर बॉलकनी में घूमने
लगते। पचास कदम आगे जाते और फिर पचास कदम पीछे मुड़कर आते। जिस दिन सुजीत कुमार
माँ से बात करते उस दिन मेस भी नहीं जाते और न ही खाना खाते। अपने कमरे में
आकर पड़े रहते और जब पड़े-पड़े थक जाते तो वापस जाकर पचास चक्कर लगा आते। इन लगाए
गए चक्करों के दौरान सुजीत कुमार को माँ के मर जाने की आवाज सुनाई पड़ती। ऐसा
लगता कि माँ बहुत हल्के से सुजीत कुमार से कुछ कह रही हो और उनकी साँस कम पड़
रही है। ठीक उसी समय सुजीत कुमार को ध्यान आता कि उनके पास प्राणायाम की वजह
से ढेर सारी अतिरिक्त साँसें हैं, वे माँ से कहते कि माँ एक साँस ले लो मुझसे
उधार और जो कहना चाहती हो कह दो। माँ कुछ इशारे से कहती तो कहते दो साँस ले लो
माँ लेकिन कह दो। माँ हर बार कुछ नहीं कहती और होंठ हिलाकर मरने का नाटक करती
और सपने में मर जाती।
सुजीत कुमार और माँ का रिश्ता इतना कमजोर इसलिए था कि उन्हें लगता था कि माँ
कभी भी मर सकती है जैसे पिता मरे थे सन्न से। मरे पिता को मुखाग्नि देते वक्त
तक सुजीत कुमार रोए नहीं थे। मुखाग्नि के बाद पिता की झरकर राख होती देह को
सुजीत कुमार देखते रहे। सब जल गया लेकिन पैर का अँगूठा बचा रहा, लालची पंडित
ने सुजीत कुमार से कहा - इसे लकड़ी से उठाकर गंगा में फेंक दो और सुजीत कुमार
के उठाते ही उसने कोई वीभत्स सा मंत्र पढ़ा था। कुछ अँग्रेजों ने पिता के साथ
एक कतार में जलती लाशों की तसवीरें नाव में बैठकर खींची थी। एक ने कहा था -
नाइस व्यू।
पिता थके होते और न थके होते तब भी सुजीत से कहते कि अँगूठा पुटकाओ और सुजीत
पूरी ताकत के साथ अँगूठे को खींचते, जैसे ही पुटकता, पिता कहते - शाबाश।
पिता का अँगूठा गंगा में फेंकते हुए सुजीत की आँखों की कोर गीली हो गई। छुटपन
में सुजीत पिता से पूछते कि आदमी रोता क्यों है तो पिता कहते कि आदमी नहीं
रोता, गंगा जी रहती हैं आदमी के अंदर, वह बहने लगती हैं।
पिता सुजीत से कहते कि गंगा जी को नाराज करना बुरी बात है इसलिए आदमी को रोना
नहीं चाहिए। छुटपन की बात सुजीत कुमार के जेहन में थी, वे रो नहीं रहे थे
लेकिन पिता का अँगूठा गंगा जी में फेंकने के बाद उनका दिल बैठ गया था। पिता को
जलाने के बाद अर्दली बाजार तक सुजीत कुमार रोए नहीं थे लेकिन जब शवयात्रा में
गए दो सौ लोगों ने एक मशहूर कचौड़ी की दुकान पर कचौड़ी और मिठाई खाई तो सुजीत
कुमार रोने लगे। पिता के जाने के बाद सुजीत कुमार की दुनिया में लगे फल के सभी
बौर पकने से पहले झरने लगे। पिता के जीते जी उन्हें नहीं लगा था कि पिता उनकी
मजबूती हैं और उन्हीं की आड़ में वे माँ को बिसार देते। लेकिन पिता की मौत के
बाद बीते तेरह दिनों ने उन्हें बराक ओबामा जितनी समझदारी दी थी।
अब माँ अकेले कुछ कर रही होती तो वे अक्सर माँ के पीछे दबे पाँव चले जाते और
देखते कहीं वह रो तो नहीं रही है। जब कभी किचन या पूजा घर के आस-पास माँ
उन्हें देख लेती तो माँ से कहते - माँ बिस्कुट कहाँ है!
माँ कहती - बिस्किट, तो बोलते हाँ वही बिस्कुट।
सुजीत कुमार बचपन से ही बिस्कुट खाने के बडे शौकीन थे। जीवन के इसी एक मामले
में वे ब्रैंड कांशियस भी थे, जब दुनिया भर में हाइड एंड सीक का डंका पीटा जा
रहा था तो भी सुजीत कुमार पारले जी ही खाते थे।
बिस्कुट माँगते ही माँ उन्हें डिब्बे की ओर इशारा कर देती। खाने-पीने की चीजें
माँ सफेद डिब्बों में सजाकर एक कतार में रखती थी, सुजीत जाते और डिब्बा उतारकर
नीचे रख देते, बिस्कुट लेकर चले जाते। माँ जब अपना सारा काम खत्म कर चुकी होती
तो बिस्कुट के डिब्बे को उठाकर नियत स्थान पर रख देती। सुबह के वक्त सुजीत
रोजाना डिब्बे को उठाकर नीचे रख देते और दोपहर होते-होते माँ काम खत्म करने के
बाद डिब्बे को पुनः अपने नियत स्थान पर रख देती। माँ दिन भर कुछ न कुछ करती
रहती थी।
दो लोगों की गृहस्थी में माँ दिन भर खपी रहती थी। चालीस सालों की आदत थी यह
माँ की, एक दिन में कैसे छूट सकती है।
बिस्कुट माँगने वाली क्रिया के उपरांत दिन में दूसरी बार सुजीत माँ को तब
देखने जाते जब वह अपनी मसहरी पर लेट जाती। माँ अक्सर दाएँ करवट सोती थी और एक
खट पर ही उठ जाती थी। मड़ई में पढ़ाई छोड़ सुजीत कुमार ओसारे तक चप्पल पहनकर आते
थे और चप्पल में फँसे पैरों को इतने हल्के से पीछे की तरफ खींचते थे कि मानों
सपने में तितली पकड़ने की तैयारी कर रहे हो। गाँव में बिजली कम ही रहती, जब
रहती तो माँ के शरीर के ठीक उपर एक वजनदार उषा कंपनी का पंखा चलता रहता।
किर्रर्रर्रर्र-किर्रर्रर्रर्र, की मंथर गति से। मसहरी के सिरहाने लगे पाट के
पीछे सुजीत कुमार छिप जाते और लकड़ी के फोटोफ्रेम वाली खाली जगह से माँ को
निहारते। माँ नूतन की खराब कॉपी लगती। पिचके हुए गालों, झुरिर्यो वाली बुढ़ा
रही माँ। माँ जैसे ही करवट बदलती सुजीत कुमार फोटोफ्रेम में अपनी पोजीशन भी
बदल लेते। कोने से देखने लगते। माँ कभी-कभी बुदबुदाती तो सुजीत कुमार संतुष्ट
हो जाते, उन्हें लगता कि माँ-पिता से पिछले चालीस सालों का हिसाब माँग रही है।
और पिता दे नहीं पा रहे हैं। जवानी और अधेड़ियत के शुरुआती दिनों में पिता
अक्सर अपने साथ पपीता और आम का पेड़ लेकर आते थे। माँ और पिता दोनों मिलकर घर
के किनारे-किनारे पेड़ लगाते थे। पिता खुरपी से खनते और माँ एक-एक बीज
बारी-बारी से बोती जाती। एक क्यारी बीज लगाने में दोनों के प्यार का कद पचास
एकड़ के काश्तकार जितना हो जाता।
पिता मूड में आते और कहते कि मैं चला जाऊँगा तुम्हीं को इन सबकी देखभाल करनी
होगी। पिता चले गए बिना मूड के, अपने पीछे पपीते के सारे पेड़ छोड़कर। पिता चले
गए अपने पीछे बौराए हुए आम के पेड़ को छोड़कर। पिता चले गए माँ के जीवन की बिगड़
चुकी तसवीर को छोड़कर। ऐसा लगा कि पचास एकड़ की प्यार वाली काश्तकारी को वक्त की
चकबंदी ने नजर लगा दी।
पिता का एक चेला था सुलेमान टेलर। वह पिता को बाबू कहकर बुलाता था और देश भर
की खबरों पर बहस किया करता था। पिता के तख्ते के पास आकर नीचे की तरफ बैठता और
हत्या, बलात्कार से लेकर मायावती और त्रिनिदाद तोबैगो के तत्कालीन
प्रधानमंत्री बाँसदेव पांडे के तार यूपी के आजमगढ़ से जुड़े होने की बात कहता।
इस जुड़े होने वाले तार की कहानी इतनी सनसनीखेज होती कि उसके मानीखेज होने के
मायने खत्म हो जाते। पिता सुलेमान की बातें बड़े चाव से सुनते थे और खूब ठहाका
लगाते।
अपने आखिरी दिनों में नौकरी पर जाना छोड़ दिया था सुजीत कुमार के पिता ने।
दुपहर को जब गाँव के आसमान पर चिलचिलाते बादल मँडराते तो पिता और सुलेमान मड़ई
में बैठ चिलम खींचते। माँ जब एकाध बार पिता को टोकने आती तो वे उसको घुड़ककर
भगा देते। माँ की नाराजगी का पिता थोड़ा सा खयाल करते। माँ के लिए इसका मतलब
वैसा ही होता जैसे दर्द के भूसे में से गेहूँ का कुछ दाना हलोरा गया हो। मौका
ताड़कर सुलेमान माँ की खुशामदी करने के लिए कहता, माई आपका सारा ब्लाउज तैयार
है। इस बार नई डिजाइनें तैयार की है। माँ हँसते हुए कहती - सुलेमान पानी
पियोगे।
सुलेमान माँ से ज्यादा, लगभग ऊपर नीचे के होंठों में पाँचों उँगलियों के आ
जाने भर के फासले से कहता - हाँ, माई। माँ सुलेमान को एक भेली गुड़ देती और
लोटा भर पानी। इतना पाकर सुलेमान माँ को अपनी पत्नी और परिवार का किस्सा
सुनाता। कभी कहता कि उसकी बीवी बीमार है तो कभी कहता बेटी को न्यूमोनिया हो
गया है। माँ उसको अचरा भर चावल या गेहूँ भी दे देती। कभी-कभी अमरूद भी देती और
आम के मौसम में आम। वह कहता कि माई आप न होती तो मैं दाल में खटाई का स्वाद भी
न जान पाता।
सुलेमान टेलर का बड़ा विध्वंसकारी इतिहास रहा है। दुनिया कहती है कि उसने अपने
पतन की कहानी खुद ही लिखी है। लेकिन सुजीत कुमार को ऐसा नहीं लगता!
जब वह साइकिल लेकर मुसहरों की पुलिया पर से गुजरता तो जोर से गाता - आवारा
हूँ, आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ। उसकी आवाज मुकेश से अधिक
दूर तक मार करती थी। गो कि मुसहरों की पुलिया कोई लोखंडवाला तो थी नहीं जहाँ
हारमोनियम बजाकर भीख माँगने वालों की भी सुनहरी दास्तानगोई होती। अब बात
सुलेमान के इतिहास की हो रही है और उसका एक जरूरी हिस्सा लोखंडवाला और जुहू के
आस-पास का है। पाँच साल पहले जब सुलेमान टेलर नहीं सुलेमान नट हुआ करता था,
बंबई भाग गया था। जुहू की एक दुकान में कपड़े सिलता और लोखंडवाला लाकर उन्हें
बेचा करता और पवई में रहता था। शुरुआती दिनों में बारह से पंद्रह और फिर अठारह
घंटे तक काम करने लगा। दो-चार दिन की छुट्टी में गाँव अपनी अकेली बीवी के पास
जाता फैंसी ब्लाउज लेकर। बीवी से बतियाता और अपनी मर्दानगी का एक सुबूत छोड़कर
चला आता। चार साल में चार बच्चों के आगमन का सूत्रधार था सुलेमान। इस दौरान
काम के घंटे उतने ही बने रहे। पैरों से चलती सिलाई मशीन और बढते चश्मे के नंबर
के नीचे कम होती जा रही रोशनी वाली आँखों से तुरपाई जारी रही। कभी-कभी सुई
सुलेमान की उँगलियों को बिंथ जाती तो बीड़ी पीने के बहाने दुकान से बाहर निकल
आता। बंबई शहर स्थित पवई इलाके के किसी पीसीओ से पिता को फोन करता था सुलेमान।
कहता - बाबू क्या चाहिए! इस शहर में सब मिलता है।
पिता कहते - अबे, सुना है, सब बड़ी तेज भागते हैं वहाँ। हरदम चलते रहते हैं। एक
अलार्म घड़ी ले आना बेटा और खो-खो कर हँसने लगते।
आखिरी बार बहुत कम दिखाई देने की वजह से जब दुकान मालिक ने सुलेमान को धकेलकर
दुकान से बाहर निकाल दिया था तो उसे बंबई शहर वैश्या जैसा लगा था। सुलेमान उस
दिन ग्रांट रोड इलाके के रेड लाइट एरिया में पप्पी नामक लड़की के पास गया था।
उसको टैक्सी में पूरा ग्रांट रोड घुमाया और किरमानी एंड संस के यहाँ कैंपा
कोला नामक पेय पदार्थ भी पिलाया था। उसी दिन लेमिंग्टन रोड की इलेक्ट्रानिक
मार्केट से सुलेमान ने पिता के लिए और पप्पी के लिए दो अलार्म घड़ियाँ खरीदी
थी। पिता को पीसीओ से सुलेमान ने जब फोन किया तो कहा कि बाबू मैं आ रहा हूँ
आखिरी बार और रिसीवर रखने के बाद उसने तुरंत पप्पी की एक पप्पी ली और कहा,
जानेमन तुम्हारा-मेरा साथ सिर्फ पचपन मिनट का था। इसे तुम एक डाक्यूमेंट्री
फिल्म समझ सकती हो। जो पेय पदार्थ तुमने पीया, वह कोका कोला का बाप था। इंडियन
नेशनल कांग्रेस और मनमोहन सिंह ने उदारीकरण के नाम पर जो नुकसान किया है देसी
उद्योग-धंधों का, उसमें मेरा प्यारा कैंपा कोला भी शामिल है। इस अलार्म घड़ी
में टाइमर के तौर पर पचपन मिनट और कैंपा कोला के स्वाद को काउंट कर स्टॉप कर
देना हमेशा के लिए। हयात रहेगी तो मुलाकात रहेगी। इसके बाद सुलेमान ने मुलुक
वापस आने के लिए महानगरी एक्सप्रेस पकड़ ली होगी और अपने गाँव वापस आ गया होगा।
सुलेमान पिता के लिए बंबई से एक अलार्म घड़ी और प्लास्टिक में बंद चकली लाया
था, जिसे पिता ने रात की दारूबाजी के लिए छिपाकर रख दिया था।
सुलेमान के घड़ी लाने वाली बात के लिए पिता ने सुजीत कुमार से कहा था कि वे अब
अपने जीवन में नियमित हो जाएँगे। सुजीत कुमार पिता को सुपरहीरो समझते थे।
सुजीत कुमार सोचते कि पिता के साथ चलने पर लोग उनको ध्यान से देखते हैं और
उनकी इज्जत करते हैं। शादी-ब्याह में जाने पर सुजीत कुमार को अलग से पिता के
बगल में विशेष कुर्सी पर बिठाया जाता। लोग जितनी बार पिता को सलाम करते उतने
ही बार सुजीत कुमार को सलाम करते। पिता का कद सुजीत कुमार के मन में दिनोंदिन
बढ़ता जाता था। एक बार इलाहाबाद के नाजरेथ अस्पताल में पिता और सुजीत कुमार माँ
के इलाज के लिए गए हुए थे। माँ की दवाइयाँ लेने के बाद पिता ने घड़ी देखी तो
ग्यारह बज रहे थे। उन्होंने सुजीत कुमार से पूछा कि पिक्चर देखोगे तो सुजीत
कुमार ने कहा कि हाँ। माँ-पिता और सुजीत कुमार ने बोनी कूपर की ऐतिहासिक फिल्म
रूप की रानी और चोरों का राजा भयावह तरीके से देखी थी। माँ और सुजीत कुमार सो
गए थे और पिता थिएटर से बाहर निकलकर एक घंटे के लिए पनामा सिगरेट पीने चले गए
थे। सुजीत कुमार के पिता का ब्रैंड था पनामा। उनके शहर की पान वाली गुमटियों
में अक्सर ये टैगलाइन पुती रहती, मन न माना, पी ले पनामा।
पिता जब लौटे तो माँ और सुजीत कुमार फटी नजरों से उनको खोज रहे थे। उन्होंने
आते ही पूछा खत्म हो गई और बची फिल्म का दारोमदार खाली कुर्सियों और दसेक
दर्शकों पर छोड़ पिता-माँ और सुजीत कुमार वहाँ से चलते बने। लक्ष्मी टाकीज के
पास से जब पिता ऑटो का पुकारने लगे तो एक बेवड़े ने आकर माँ से उसका नाम पूछा
था। माँ अपना नाम बताने ही वाली थी कि पिता ने उसका सिर खंभे पर खुलने के लिए
दे दिया। उस समय भी सुजीत कुमार को पिता सुपरहीरो जैसे लगे थे। सुजीत कुमार को
लगता कि पिता नहीं होते तो क्या होता लेकिन कभी भी उनको ऐसा नहीं लगा कि पिता
नहीं होंगे तो क्या होगा! सुजीत कुमार अक्सर सपना देखते कि एक दिन रात में वे,
पिता और माँ घर के पीछे सूख चुके ताल में जाएँगे। बेवार फटी धरती पर सूखी
जलकुंभी बिछाकर सुजीत कुमार उसे समतल कर देंगे। एक रेशमी चादर फैलाते हुए पिता
उस पर लेट जाएँगे और माँ अहरे पर बाटी-चोखा बनाएगी। हलकी-हलकी हवा चलेगी और पक
चुकी बिलौती वाला बबूल का पेड़ ढेर सारा लासा छोड़ेगा। सूखी बिलौती के साथ सुजीत
कुमार लासा भी खाने की सोचते कि तभी पिता चिल्लाते काँटा धँस जाएगा। सुजीत
कुमार दौड़ते हुए आते और पिता के पेट पर लेट जाते। पिता उनको माता रानी वाला
गीत सुनाते।
गाना सुनते हुए सुजीत कुमार सोने का नाटक करते और सोचते कि माँ-पिता एक ही
थाली में खाना खा रहे हैं। इतने में सुजीत कुमार की नींद खुल जाती और वे माँ
से कहते कि माँ मेरे सपने में नीलगायें आई थी। काली-काली बड़ी-बड़ी। चार
नीलगायों ने मुझे घेर लिया और मेरे बिस्तर को सूँघने लगी। मैंने उनसे कहा कि
मुझे मत खाओ तो वे मुझ पर हँसने लगी। उन्होंने कहा कि सुजीत कुमार तुम नाहक
चिंता कर रहे हो। हम नीलगायों ने कभी किसी को खाया है या कुचलकर मारा है।
तुम्हारे इलाके के नेता नाटे विनोद को तो उसके विरोधियों ने ही मरवा दिया था
और नाम दे दिया कि हम नीलगायों ने उसको कुचल दिया। तभी से तुम्हारे मन में
नीलगायों को लेकर आतंक पैदा हो गया है। नीलगायों की बातें बताते वक्त सुजीत
कुमार इतने सहज हो जाते कि मानों माँ को अपने किसी दोस्त का किस्सा बता रहे
हों। सुजीत कुमार कहते कि एक छोटे नीलगाय ने मेरा हाथ चूमते हुए कहा कि हम
बरगुदर वाले पुल के नीचे बहने वाली सई नदी के किनारे हमेशा बैठे रहते थे लेकिन
वहाँ के बालू माफिया ने हमें खदेड़ दिया। फिर हम तुम्हारे घर के पीछे वाले जंगल
में गए लेकिन तुम्हारे पिता और दादा और उनके भी पुरखों ने हमारे पुरखों को
गोलियाँ मार दी। हमको जंगल छोड़कर मैदानों में आना पड़ा। हम लोगों के खेतों में
जाकर चरने लगे और बरहे का पानी पीने लगे तो लोगों ने अपने खेतों को इलेक्ट्रिक
तारों से घेर दिया। हम और भी मर गए। अब हमें अपने सपने से तो न निकालो सुजीत
कुमार, हम जाएँ तो जाएँ कहाँ।
सुजीत कुमार माँ से ये बातें बताते और सुलेमान और पिता मड़ई में बैठकर न जाने
कहाँ की बातें किया करते थे। दरअसल, माँ को जब पिता रात में पीटते थे तब सुजीत
कुमार सोते रहते थे और ऐसे ही सपने देखते। सुबह उठते तो पिता किसी न किसी के
साथ मड़ई में बैठे रहते थे और माँ कनैल के पेड़ से पीला फूल तोड़ती रहती। माँ खूब
देर तक पूजा करती थी सुबह के वक्त। तीन बार कुएँ की जगत पर जाती थी और तीनों
बार कनैल के फूल तोड़ती। जगत पर छोटा सा घर बना हुआ था जिसके अंदर एक पत्थर रखा
होता था। माँ उस पर रोज फूल चढ़ाती। सुजीत कुमार अक्सर माँ से पूछते कि यह कौन
वाले भगवान हैं तो माँ कहती बुढ़ऊ बाबा हैं।
बुढ़ऊ बाबा नाम सुनकर सुजीत कुमार के शरीर में कँपकँपी छूट जाती। बाबा का
किस्सा बहुत मशहूर था इलाके में। उनके बारे में कहा जाता था कि गाँव के कुछ
युवा होली से एक दिन पहले होलिका दहन वाले दिन गाँव में कौड़िया निशान वाला
खेल-खेल रहे थे। टीले पर बैठे मुखिया ने रात के अँधेरे में गोली मैदान में
फेंकी और उस गोली को ढूँढ़ने के लिए सभी खिलाड़ी मैदान में एक-दूसरे पर टूट
पड़ते, जो खिलाड़ी इसे लेकर आाता उसकी टीम को एक पॉइंट मिलता। अंतू टीम का ही
खिलाड़ी था, उसको गोली मिली लेकिन उसके भागने से पहले कई लोग उसके उपर चढ़ गए।
उसके नाक और मुँह से खून निकलने लगा। लोगों ने उसको बगल की टूटी पुलिया पर ले
जाकर लिटा दिया। इतने में सूखी पुलिया के अंदर से एक मेंढक कूदता-कूदता आया और
अंतू के सीने पर जाकर चढ़ गया। दो बार धप्प-धप्प कूदा और अंतू उठकर बैठ गया।
तभी से यह मान लिया गया कि पुलिया में बुढ़ऊ बाबा रहते हैं। गाँव के हर घर में
बाबा की पूजा होने लगी।
दूसरा फूल माँ उस नीम के पेड़ के नीचे चढ़ाती जिसके नीचे पिता गर्मियाँ में
सोते थे। अपने आखिरी दिनों में पिता नीम के पेड़ के नीचे ही बैठकर अखबार पढ़ने
लगते थे। रात के एक या दो बजे के करीब। दो-पाँच दिन पहले का बासी अखबार। गजब
तरीके से उन खबरों से वे खुद को कनेक्ट भी कर लेते। एक रात माँ ने पूछा कि
इतनी देर से अखबार क्यों पढ़ रहे हैं तो उन्होंने कहा कि इस अखबार में लिखा है
कि अगला पंचायत चुनाव तुम जीतोगी निर्मला। माँ उनको समझाती कि आप चुनाव का
जुनून छोड़ दीजिए, यह आपकी जान लेकर छोड़ेगा। लेकिन, वह कहते कि इतने लोगों के
लिए मैंने काम किया है क्या कोई भी मेरे साथ नहीं आएगा। माँ कहती कि वह एक बार
तीन और दूसरी बार सात वोटों से चुनाव हार चुकी हैं। वह भी उन लोगों की वजह से
जिनके लिए पिता ने ग्राम समाज की जमीन के पट्टे थोक के भाव में कर दिए थे।
महँगू, श्रीराम और करिया किसी ने भी माँ को वोट नहीं किया। माँ जब चुनाव हारी
तो उसने किसी से कुछ नहीं कहा और पिता से कई सवाल पूछें। माँ पिता से कई सवाल
पूछ रही थी लेकिन पिता एक भी जवाब नहीं दे पा रहे थे, देते भी कैसे, माँ जब आई
थी तो नूतन से भी अधिक सुंदर जो थी। माँ जिस मसहरी पर सोती, वह अपने साथ लाई
थी। पिता और माँ पहली बार इसी मसहरी पर मिले होंगे। उन दिनों मसहरी एकदम लाल
रंग से रँगी थी। मसहरी शीशम के लकड़ी की बनी थी। सुजीत कुमार की फूहड़ दादी जब
माँ को डाँटती तो कहती कि मसहरी के सिवा क्या लेकर आई हो तुम।
सुजीत कुमार दादी से कहते - तू क्या लेकर आई थी बूढ़ा! अगर मेरी माँ के बारे
में कुछ भी बोला तो गर्म खोपड़ी मर जाएगी! दादी जवानी के दिनों से अपने सिर पर
नीम के पत्ते पिसवाकर रखती थी। ये पत्ते पहले पिता तोड़ते थे और बाद के दिनों
में सुजीत कुमार तोड़ने लगे थे। माँ की कदर दादी नहीं करती थी, माँ को जिन
चीजों से सुख मिलता दादी उन पर नजर लगा देती थी। मसलन, पिता का विश्वास, पिता
के पैसे और पिता की जवानी और माँ-पिता की मसहरी जिस पर वे पहली रात सोए थे।
सुजीत कुमार को भी माँ की मसहरी बहुत पसंद थी। जब मसहरी के सफेद पट्टों में
दीमक लग गई तो पिता ने सारे पट्टे निकलवा दिए और लकड़ी की फल्लियाँ लगवा दीं।
मसहरी के सफेद पट्टों का निकलना सुजीत कुमार को बुरा लगा था लेकिन बाद में
उन्हीं पट्टों को मोडकर उन्होंने खूब पहिया-पहिया खेला था। मसहरी के सिरहाने
और पैताने दोनों तरफ लकड़ी की डिजाइनर पाटें थीं। दोनों पाटों के बीचो-बीच एक
फोटोफ्रेम था जिसमें एक तरफ मिथुन दा तो दूसरी तरफ हेमा मालिनी की तस्वीर थी।
डिस्को डांसर वाले मिथुन दा न कि संन्यासी मेरा नाम वाले मिथुन दा। फ्रेम के
अंदर तसवीरें गलने लगीं तो पिता ने इस पूरे फोटोफ्रेम को ही निकलवा दिया। इसी
खाली जगह से सुजीत कुमार माँ और उनके सपनों की निगरानी करते। जब पिता मरे तो
सुजीत कुमार बारहवीं की पढ़ाई कर रहे थे। पिता की तेरहवीं में कुल जमा डेढ़ लाख
का खर्च आया था, जो माँ ने इधर-उधर से माँगकर जुहाए थे। पिता के जाने के बाद
माँ ने गोदरेज की आलमारी को खोलना भी बंद कर दिया था। जब पिता की नौकरी लगी
थी, पिता ने एक छोटा बक्सा लाकर माँ को दिया था और कहा था कि कमाई के पैसे इसी
में रखना। सुजीत कुमार जब पैदा हुए तो पिता की कमाई चरम पर थी। बड़ी बुआ बताती
थीं कि पिता गमछे में पैसा भरकर लाते थे। दादी, बुआ और चाचा लोग बैठकर गिनते
थे और माँ बड़े वाले दरवाजे के किनारे खड़ी होकर निहारती थी। पिता ने अपनी किसी
चीज का हिसाब माँ को नहीं दिया था, मृत्यु भी उनमें से एक थी। अधिक पैसे होने
पर पैसे बक्से से बाहर एक लाल कपड़े में सहेजकर रखती थी माँ। उस छोटे बक्से और
लाल कपड़े को माँ ने गोदरेज की आलमारी में रख दिया था। आलमारी सुजीत कुमार के
गाँव में बनारस से खरीद कर आई थी। तब उनके गाँव में किसी के पास आलमारी नहीं
थी। जब नहर से ट्रक आलमारी को लादे आ रहा था, तो चिकनी मिट्टी भसकने से ट्रक
फँस गया था। पिता ने ड्राइवर को बहुत गाली दी थी और कहा था कि उसके पैसे नहीं
देंगे। लेकिन पिता उतने कठोर थे नहीं जितनी बातें करते थे। उन्होंने ड्राइवर
को दस रुपये अधिक दिए थे। कुछ दिनों बाद ही ड्राइवर वापस गाँव आया था ट्रक
लेकर। गाँव के लोग घरों के सामने बने मिट्टी के ढूहों से ट्रक को देखने लगे
थे। ट्रक में ढेर सारी बोरियाँ लदी थी, जिसमें मूलियाँ थी। ड्राइवर ने पिता को
देखते ही नमस्ते किया और कहा था - जिले में मूली प्रतियोगिता है, उसके पास सात
किलो की एक मूली है। वह पिता को देने आया है। उसे यकीन था कि पिता इस
प्रतियोगिता को जीत लेंगे। सुजीत कुमार का जिला मूली और मकई के लिए मशहूर था,
लेकिन बाद में इसमें मक्कारी भी जुड़ गई थी। यह सब उनके पिता के दौर की बातें
हैं, जब उनके जैसे ही आदमी हुआ करते थे। अब न पिता थे, न कमाई थी और न ही पैसे
थे, लेकिन गोदरेज की आलमारी में रखा बक्सा वैसा ही था। पिता के प्राविडेंट फंड
और अन्य जमा पैसे निकालने में सुजीत कुमार थोड़े अनुभवी और जानकार हो गए थे।
नवासे में गाँव आए प्रताप भैया ने सुजीत को दुनियादारी की पहली कक्षा की सीख
दी थी। डेथ सर्टिफिकेट और कुटुंब रजिस्टर की नकल देने के लिए ग्राम पंचायत
अधिकारी ने 500 रुपये माँगे थे। प्रताप भैया ने ढाई सौ रुपये में बात तय कर दी
थी। सुजीत कुमार के घर से ग्राम विकास अधिकारी का घर तेरह किलोमीटर की दूरी पर
था। वह कभी भी अपने दफ्तर नहीं जाता था। सारा दफ्तर अपने घर ले आया था। प्रताप
भैया ने जब उसको सुजीत कुमार के पिता के बारे में बताया तो उसने बहुत चिंता
जताई और कहा कि फलाने बहुत अच्छे आदमी थे, वह उनकी मृत्यु से संबंधित सभी
कागजात जल्दी ही बना देगा। प्रताप भैया और सुजीत कुमार इसके बाद अक्सर ग्राम
पंचायत अधिकारी के घर कागजात के सिलसिले में जाने लगे।
इन्ही दिनों सुजीत कुमार ने साइकिल चलाना सीखा था। प्रताप भैया सुजीत कुमार को
अक्सर साइकिल के बीच वाले हत्थे पर बिठ लेते। सुजीत कुमार ने उन दिनों नई-नई
साइकिल सीखी थी तो प्रताप भैया से कहते कि मुझे साइकिल चलानी है। प्रताप भैया
इतने सीधे और सभ्य आदमी थे कि उन्हें देखकर कोई भी कह सकता था कि सभ्यता के
निर्माण के शुरुआती दौर में उनका आविर्भाव हुआ है। सुजीत कुमार और माँ की सबसे
अधिक मदद प्रताप भैया ने की। उनकी वजह से ही पिता के पैसे माँ के खाते में आए।
इस प्रक्रिया के बाद ही सुजीत कुमार को पढ़ने के लिए बाहर भेजा जाने लगा। सुजीत
कुमार जाने को तैयार नहीं हुए। बोले - मैं तुमको छोड़कर अकेले नहीं जाऊँगा।
प्रताप भैया ने सुजीत कुमार को कई दिनों तक समझाया। उसके बाद सुजीत कुमार माँ
को छोड़कर शहर पढ़ने के लिए राजी हुए। माँ पिता के प्रॉविडेंट फंड से मिलने
वाले पैसे के ब्याज जुटाकर सुजीत को पढ़ने के लिए देती और वे उनमें से आधे माँ
को फोन करने में खर्च कर देते। तभी उनके जीवन में हटिया एक्सप्रेस का आगमन और
डिर्पाचर हुआ था। सुजीत कुमार जब फिर से अकेले हुए तो उन्होंने माँ को फिर से
फोन करना शुरू किया। सुजीत कुमार कई बार फोन करते तो माँ एकाध बार उठा लेती।
सुजीत कुमार से माँ पहले जैसे ही बात करती। लेकिन, सुजीत कुमार को लगता कि माँ
का उनसे बात करने का मन क्यों नहीं हो रहा है? सुजीत कुमार ने औड़िहार जाने
वाली रेल बस में बैठना कम कर दिया है। उनके पैसे भी समय पर आने बंद हो गए। अब
माँ उनका फोन नियमित तौर पर नहीं उठाती। माँ को फोन बंद भी आना शुरू हो गया,
सुजीत कुमार के पास इतने पैसे भी नहीं बचे कि वे अपने घर वापस जा सकें।
मंगलवार का दिन था, सुजीत कुमार हनुमान मंदिर जाने की बात सोचने लगे। उनकी
तकलीफें एक बार और बहुत बढ़ गई थी। वे हनुमान मंदिर गए और खूब नहाया, मल-मलकर।
प्रसाद खरीदा और चाय की दुकान पर जाकर बैठ गए। एक अखबार, जो संभवतः इलाके का
सबसे बड़ा अखबार था, उठाकर पढ़ने लगे।
हेडिंग थी... प्रताप सिंह का सरेंडर
फोटो - प्रताप भैया की थी।
खबर थी कि चर्चित ब्लॉक प्रमुख रामकुमार गौतम की हत्या के मुख्य अभियुक्त
प्रताप सिंह ने आज सत्र न्यायालय में सरेंडर कर दिया। अगले विधानसमभा चुनाव
में उन्हें इलाके की सबसे बड़ी पार्टी ने टिकट देने का वादा किया है। अदालत
परिसर में उनके साथ उनकी पत्नी निर्मला सिंह भी मौजूद रहीं।
सुजीत कुमार ने माँ की तसवीर देखी। माँ का चेहरा हटिया एक्सप्रेस के चेहरे से
मिल रहा था। सुजीत कुमार ने समोसे और चाय का ऑर्डर दे दिया। चुभुक-चुभुक खाने
लगे।